Thursday, January 2, 2014

मैं

इक सालाना दस्तुरसा है
दस्तक होती है दरवज्ज़े पर
बाहर सन्नाटा रहता है
गुमनामसा बादल बहता है
मुड़कर अंदर देखू तो
'वो' शतरंज बिछाए हसता है
मैं आता जो सालाना हुँ
वो कहता मैं 'फ़लाना' हुँ
विल्स-माईल्ड के धुएँ तले
फिर शह-मातों का दौर चले
जिसकी भी हार यहाँपर हो
दुनिया पचड़े का कच्चा वो
बचा खुचा सब जुतीपर
जो जीतें जाए छुट्टीपर

हर साल मैं सोचुं पुछूंगा
यही सवाल मैं नोचूँगा

सवाल,शक,डर ऐसा है
दस्तुर ये जो सालाना है
'वो' दस्तकवाला जो आए
'वो' मैं हुँ या फ़लाना है

- प्राजक्त ७ जुन '१३

(फिर दस्तक होती दरवाज़े पर
बाहर सन्नाटा रहता है
गुमनामसा बादल बहता है
मुड़कर अंदर देखू तो
'वो' शतरंज बिछाए हसता है)

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